Sunday, August 31, 2008
chat with गणपति बप्पा. ..बप्पा says..मुझे धरती पर नही आना
आज सुबह ४ बजे उठी .पता नही क्यों ,रोज की तरह वीणा बजाने का मन नही हुआ,सोचा mail चेक कर लू ,जैसे ही ईमेल id डाल कर इन्बोक्स ओपन किया ,देखा क्या?chat आप्शन में गणपति बप्पा के नाम के आगे ग्रीन साइन हैं,यानि बप्पा chat के लिए अवेलेबल ,फटाफट उनके नाम के आगे क्लिक किया और लिखा..
hi बप्पा.
बप्पा says: ओ hi राधिका बेटी ,how r u ?आज रियाज़ नही कर रही सुबह सुबह ?
me: अरे बप्पा आज पता नही मूड नही बन रहा,मैं मजे में हूँ ,आप बताओ सुबह सुबह chat पर कैसे ?
बप्पा : मुझे तो यही समय मिलता हैं ,बाकी दिन भर तो सब भक्तो की प्रोब्लम सुलझाते -सुलझाते ही चला जाता हैं,अभी जरा कार्तिकेय से बात कर रहा था .
me: ok,अरे हाँ! आप तो कल आ रहे हैं न यहाँ . I mean धरती पर ,सब जगह बहुत तैयारिया हो रही हैं ,आपके स्वागत की .
बप्पा: उस बारे में कुछ मत पूछो,उस वजह से कल से माता पारवती मुझसे नाराज़ हैं .
me: क्यों ?क्या हुआ?मम्मा क्यो नाराज़ हो रही हैं?आपने कुछ कहा ?
बप्पा : हाँ न !मैंने कह दिया की इस बार गणेश चतुर्थी पर मृत्यु लोक यानि तुन्हारी धरती पर नही जाऊंगा .
me: ओ भाई साहब !!!!!!!!!!ऐसे क्यो कर रहे हो बप्पा?हमसे कुछ गलती हो गई क्या?किस बात से इतना नाराज़ हो?
बप्पा : एक बात हो तो बताऊ.
me: फ़िर भी कुछ तो बोलो .हम सब तो इतनी तैयारी कर रहे हैं ,आपके आने की .
बप्पा: यही तो रोना हैं .
me: मतलब?
बप्पा: अरे यार,देखो हर बार मैं वहां आता हूँ ,और मेरा जीना दूभर हो जाता हैं .
me: क्यो?क्यो?
बप्पा: मेरी बड़ी बड़ी मुर्तिया बनाकर मुझे हर चौराहे पर ,बिठाल देते हैं तुम्हारे सब भाई बंधू .
आते जाते वाहनों की दिन भर की आवाज़ ,और प्रदुषण के मारे मेरा दम घुटने लगता हैं .
me: सही हैं बप्पा तुम्हारा .और कोई प्रॉब्लम ?
बप्पा: और सुनो ,सुबह सुबह 4 बजे तो मैं उठ ही जाता हूँ ,यहाँ होता हूँ या किसी मन्दिर में तो,किसी शंख ,घंटी ,गीत की आवाज़ से नींद खुलती हैं ,वहां सुबह सुबह कचरे वाला बड़ा सा झाडू लेकर सड़क पर आता हैं ,आधी धुल मेरे उपर उड़ती हैं ,फ़िर वही गन्दी वाहनों की आवाज़.थोडी देर बाद भक्त आते हैं,फूल वोल्यूम में गाने लगा देते हैं.
me: तो क्या हुआ उसमे ?तुम्हे तो संगीत बहुत पसंद हैं न ?
बप्पा: वही तो ! मुझे संगीत बहुत पसंद हैं ,दुर्गीत नही .ये सबके सब इतने जोर से बजाते हैं की मेरे इतने बड़े बड़े कानो के परदे भी हिल जाते हैं.
बप्पा: और तुम्हे याद हैं ,दो साल पहले भाजी मंडी में तुम गई थी ,गणपति उत्सव के दौरान ?
me: हाँ याद हैं तो ?
बप्पा: वहाँ भी मुझे बिठाया था ,सब मूवी के गानों पर मेरा नाम ले ले कर पैरोडी बनाई थी,वह रिकॉर्ड लगा था,तब एक बहुत ही प्रचलित गंदे गाने के संगीत पर, मेरे उपर कविता लिखकर, उस धुन पर बिठा कर बजाया जा रहा था ,और थोडी देर बाद कैसेट बदल कर मूवी सोंग्स लगा दिए गए वह भी घटिया .तुम्हे बहुत बुरा लगा था .सही कह रहा हूँ न?
me: सही कहा बप्पा ,मुझे बहुत दुःख हुआ था.
बप्पा: तो सोचो क्या मुझे न होता होगा?क्या चार सुरों की सीधी - साधी सरल सी धुन नही बना पाते मेरे लिए,मैं मान ही नही सकता की भारतीय इतने संगीतहीन हैं .
me: सही हैं .
बप्पा: छोटे बच्चे,बडे लोग सब इन्ही गानों पर नाच नाच कर मुझे शर्मिंदा करते हैं . पहले अच्छा गाना बजाना हुआ करता था ,भजन होते थे,अच्छी प्रतियोगिताए होती थी.
me: ठीक हैं आपका,पर कही कही तो आज भी अच्छा हो रहा हैं न?
बप्पा : पर उससे दुगुना ग़लत हो रहा हैं न! मैं कैसे आऊ?
me: ok यह भी सही हैं .और बोलो ?
बप्पा: विसर्जन के दिन मुझे उठाते भी नही बनता ,बहा देते हैं किसी नदी तालाब में,अब मेरी मूर्ति माटी की तो कम ही बनती हैं ,प्लास्टर और अन्य की ज्यादा ,नदी गन्दी हो जाती हैं ,बिचारे पानी के अंदर के जिव जंतु मरते हैं ,मुझे ऐसे गिराते हैं की मेरे हाथ पैर टूटते हैं वह अलग .
me: क्या बोलू अब ?सारी बाते सही हैं तुम्हारी .
बप्पा: अभी एक जगह चॉकलेट की मूर्ति बनाई हैं मेरी .
me: हाँ पढ़ा .
बप्पा: अब सब बच्चे मुझे ललचाई नजरो से देखेंगे.
me: हा हा हा हा :-)
बप्पा : हंसो मत ,बिचारे सोचेंगे ,हमे तो खाने को भी नही देते बप्पा ख़ुद पहने फिरते हैं . राधिका , दुनिया में कितने ही बच्चे रोज़ भूख से तड़प कर मर जाते हैं,कितनो ने ही चोकलेट का स्वाद भी नही चखा ,ये मेरी मूर्ति विसर्जित करेंगे सब चोकलेट बर्बाद हो जाएगा.
तुम भी माँ हो किसी की .क्या तुम्हे अच्छा लगेगा की बच्चो को खाने को नही और तुम खाओ ,सजो ?.....
बोलो?...........
me: sory बप्पा ,पर बिल्कुल नही .
बप्पा: लोकमान्य तिलक जी ने राष्ट्रिय एकता के उद्देश्य से गणपति उत्सव शुरू किया था ,पर सब मनुष्य आज सिर्फ़ मजे और स्वार्थ के लिए उत्सव मना रहे हैं,मेरे लिए प्रेम भी कम ही हैं .सब सोचते हैं बप्पा हैं जो जी में आए करो,पर जिस बप्पा ने तुम्हे ह्रदय दिया हैं उसका भी एक ह्रदय हैं ,जिसे बस सच्चा प्रेम चाहिए,प्यार भरा एक फुल चाहिए,सच्चा संगीत चाहिए,जो दिल से निकला हो.और स्वर, शब्द मधुर हो .मुझे बप्पा बना के बिठा दिया और कर रहे हैं जो करना हैं .गलत हैं न !!!!!!!!!!!!!!!!!!
me : शर्मिंदा हूँ .बोलो क्या मैं कुछ कर सकती हूँ ?तुम्हे खुश करने के लिए?
बप्पा: बस एक काम करो .
me: जी बप्पा .
बप्पा: ये chat अपने ब्लॉग पर दे दो .
me: बप्पा दे दू ,पर मेरा ब्लॉग नया नया हैं ,कम ही पढ़ते हैं लोग ,और क्या होगा उससे ?
बप्पा: तुम्हारे ब्लॉग पर जो भी आते हैं ,आयेंगे प्रबुध्ध मानव ही हैं ,यह मेरा आशीर्वाद हैं ,वो पढेंगे, समझेंगे मेरी हालत और दूसरो को ऐसा करने से रोकेंगे.
me: ऐसा हैं तो मैं जरुर कर देती हूँ.पर तुम आओ pls.
बप्पा: सोचता हूँ ......चलो अभी चलता हूँ माता कबकी पुकार रही हैं.उन्होंने गरम गरम मोदक बनाये हैं .
me: वाह! चलो bye
बप्पा: ok bye bye
तो भक्तजनों यह थी गणपति बप्पा से हुई chating.उनके आदेश का मैंने पालन किया ,और आपसे विनती हैं कृपया उनकी समस्या सुलझाए ,ताकि इस बरस भी वह आए और रूठ के न जाए .
गणपति बप्पा मोरया ,आमच्या घरी लवकर या .
Saturday, August 30, 2008
सपने कितने अपने ........
कल रात मुझे एक सपना दिखा कि, मैं एक बहुत बहुत ऊँची पहाडी पर पहुँची हूँ,वह पहाडी बहुत सुंदर हैं,चारो तरफ़ पेड़ पौधे हैं,हिरन हैं,मोर हैं ,चिडिया हैं ,और उस पहाडी के निचे नीले रंग से परिपूर्ण सुंदर समुन्दर हैं,उपर तक उठने वाली लहरे मानो हवा से आंखमिचोली खेल रही हैं, बडा विशाल समुन्दर,उसका पानी इतना साफ कि पानी तैरने वाली मछलिया और सीपिया भी साफ साफ दिखाई देखते रही थी ,पहाडी पर एक मन्दिर हैं ,जहाँ कुछ भक्तगण भजन पूजन कर रहे है ,मन्दिर में स्थापित देव मूर्ति ह्रदय को शांत कर रही हैं.
सपनो के बारे में जानना ,सपनो को समझने की इच्छा छोटे बच्चो से लेकर बडो तक पायी जाती हैं .सपने मानव के लिये कौतुहल का विषय रहे हैं ,सपनो कि अपनी अलग दुनिया हैं,अलग ठोर ठिकाना हैं,एक अलग ही लोक हैं.सपने कहाँ से आते हैं?कभी कभी इतने आते हैं और कभी बिल्कुल नही आते हैं,अभी भी पुरी तरह से यह सिध्द नही हो पाया हैं. विघ्यान इतना आगे बढ़ गया हैं जहाँ वैज्ञानिक सपनो कि पहेली सुलझाने में लगे हैं ,वही आम इन्सान सपनो कि अपनी अपनी तरह से व्याख्या करता रहता है .
कहते हैं सपनो के निर्माण में दिमाग का पिछला हिस्सा अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं ,यही सपनो कि उत्पप्ति होती हैं.हम जो कुछ भी दिन भर में देखते हैं ,करते हैं,वही सारी बाते सपने बनकर हमें दिखाई देती हैं ,जीते जी इन्सान कि इच्छाए कभी खतम नही होती,वह कुछ पाना चाहता हैं ,और वह उसे नही मिलता तो सपने के रूप में व्यक्ति वह वस्तु पाकर अपनी इछाये पुरी करता हैं ,कुछ वैज्ञानिक मानते हैं कि,यह एक प्रकार कि दिमागी सफाई की प्रकिया हैं,हम एक दिन में कितने ही लोगो से मिलते हैं ,इधर उधर की बाते सुनते समझते हैं,कई बार ऐसी बाते भी चाहे अनचाहे सुनते हैं ,जिनसे हमारा वास्ता नही होता ,इसलिए उन अनुपयोगी चीजों को सपनो के माध्यम से मस्तिष्क से बहार निकाला जाता हैं .
हमारी निजी ज़िन्दगी से सपनो का गहरा ताल्लुक होता हैं ,विघ्यान कुछ भी कहे पर एक बात सत्य हैं की सपने सिर्फ़ गार्बेज या हमारे अंत:करण में दबी इच्छाओ को पुरा करने का साधन मात्र नही हैं .हम अपने जीवन का एक तिहाई हिस्सा सपने देखने में लगाते हैं,सोते समय हमारे दिमाग की नसे ज्यादा सक्रिय हो जाती हैं .सपने हमारे लिये कई बार जीवन की समस्याओं को सुलझाने में मदद करते हैं ,कई बार उचित मार्ग दर्शन भी देते हैं ,मैं ऐसे लोगो को जानती हूँ ,जिन्होंने सपनो से बहुत कुछ सिखा हैं,कुछ संगीतकारों ने मुझे बताया की उन्होंने फला राग ,फला बंदिश सपने से सीखी ,सपने भविष्य दर्शन भी करवाते हैं ,आज जो हमने देखा हो सकता हैं की वह आने वाले समय में सच हो जाए ,और ऐसा होता हैं ,जिन लोगो का सिक्स्थ सेंस ज्यादा ऊँचा होता हैं ,वे ऐसे भविष्य दृष्टा सपने देखते हैं .
ये तो हुई बात रात को सोते समय देखे जाने वाले सपनो की ,पर हम दिन में भी सपने देखते हैं,जिनका सच होना कम सम्भव होता हैं ,और जो सपने हम आँख खोल कर देखते हैं,उनका तो कहना ही क्या ?सबसे ज्यादा आनंद जागते हुए सपने देखने में हैं ,हम जब जागते हुए अच्छे सपने देखते हैं ,तो हमें कई % सकारात्मक उर्जा प्राप्त होती हैं ,बच्चे ,बुढे ,जवान हर कोई सपना देखता हैं ,और सिर्फ़ रात में ही नही दिन में भी सपने देखने चाहिए ,कयोकी जब हम बड़े बड़े ऊँचे ऊँचे सपने देखंगे तभी हमें जीवन में कुछ करने का हौसला मिलेगा ,बल मिलेगा ,इच्छा शक्ति मिलेगी ,उसी इच्छा शक्ति के बल पर हम जीवन में आगे बढ़ सकते हैं,कुछ लोग कहते हैं,बडे और ऊँचे सपने नही देखना चाहिए ,पर मैं कहती हूँ की इन्सान ने हमेशा बडे बडे और ऊँचे ही सपने देखने चाहिए,तभी हम अपने सपने पुरे कर पाएंगे ,और एक% उस सपने को जस का तस् पुरा नही भी कर पाए तो ,कुछ तो करेंगे,सपना सच होना बात अलग हैं और सच करना दूसरी. इसलिए खूब सपने देखे और दिखाए ,और उन्हें पुरे करने कि जी तोड़ कोशिश करे .क्योकि जैसे जैसे आपके सपने सच होते जायंगे आप ख़ुद को अधिक सक्षम ,और विश्वास युक्त पाएंगे.
Friday, August 29, 2008
रहने को घर नही
राम, श्याम दो भाई बरसो के बिछडे हुए,अचानक एक दिन किसी शहर में ,किसी अनजानी राह मैं मिलते हँ ,श्याम राम से पूछता हैं ... ...मेरे पास कार हैं,बेंक बेलेंस हैं,माँ हैं ,बीबी हैं ,बच्चे हैं ,प्लाज्मा टीवी हैं,फ्रीज़ हैं,एसी हैं,कंप्यूटर हैं ,मोबाईल हैं,बीबी के पास गहने हैं,नौकर चाकर हैं,नाम हैं ,इज्जत हैं ,ऑफिस में बड़ा सा केबिन हैं,तुम्हारे पास क्या हैं ??????????????????????????????????????????????????
राम पल भर की चुप्पी के बाद ....................मेरे पास...................मेरे पास ....... मेरे पास ........... .......मेरे पास
................................................. अपना एक छोटा सा घर हैं .
श्याम चुप !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
आज स्थिति बिल्कुल यही हैं,सुख सुविधा की सारी वस्तुए मौजूद हैं ,जेब में भर भर के पैसा मौजूद हैं,बाज़ार घर सजाने के लिए लगने वाली सारी चीजों से भरा पड़ा हैं,जोश -जोश में एक सोफा सेट,डाइनिंग सेट, किताबो की अलमारी ,बच्चे का बिस्तर ,दो-चार पेंटिंग्स ,म्यूजिक सिस्टम,चार -छ: हेंडीक्राफ्ट आईटम हम भी खरीद लाये ,घर आकर याद आया कि ये सारा सामान रखेंगे कहाँ?घर में ???????????????????????????????????????
घर जिसे हम आधुनिक युग में घर कहते हैं ,वस्तुत: एक या दो कमरों का ऐसा वास्तु संयोजन होता हैं जिसमे रसोई से लेकर ,बैठक तक सब कुछ जमाया गया होता हैं .यह बात अलग हैं की उस संयोजन में कला कम हैं और मज़बूरी अधिक .
यह कहानी घर घर की हैं ,कि रहने के लिए किसी के पास अपना घर नही हैं ,बंगला और टेनामेन्ट जैसे शब्द तो अब दुर्लभ शब्द के पर्यायवाची बनते जा रहे हैं,अब तो एक दो कमरों का फ्लैट भी मिल जाए तो ईश्वर कि कृपा हैं .दो कमरे भी बहुत हो गए,एक कमरे में ही सारी गृहस्थी बसानी पड़ती हैं .
घरो के दाम आसमान छू रहे हँ,कयोकी कभी सीमेंट महंगा हो गया हैं तो कभी रेत महँगी हो गई हैं,कभी ट्रांसपोर्ट पर ज्यादा खर्च आता हँ,तो कभी कुछ और समस्या आगयी हैं.
एक समय था जब कुछ हो या न हो हर व्यक्ति के पास अपना एक घर जरुर होता था,और जो थोड़े अमीर थे उनके पास तो बडे बडे घर हुआ करते थे ,मराठी लोग जिसे वाडा कहते थे ,यानि इतना बड़ा घर कि 10-12 रिश्तेदारो के परिवार आराम से एक ही घर में रह ले . अब तो जब संयुक्त परिवार टूट गए हैं एकल परिवारों के पास रहने के लिए अपना एक छोटा सा घर भी नही हैं .बड़े शहरो में ठीक - ठाक फ्लैट यानि कुछ करोड़ ...............................................
अपने घरो कि तो बात ही भूल जाए , किराये का घर भी लेना हो वह भी एक कमरे वाला तो 60-70 हज़ार का तो डिपोजिट ही देना पड़ता हैं,उपर से 10-15 हज़ार का किराया ........................
एक मध्यम वर्गीय ,उच्चमध्यम वर्गीय परिवार के लिए हर महीने ये रकम अपनी तनख्वाह से ,बज़ट से निकलना कितना मुश्किल होता हैं ,यह सभी जानते हैं .
मैं जब छोटी थी,तो स्कूल जाते समय एक रास्ते पर कुछ गरीब परिवार रहते थे ,बिचारे सड़क के एक किनारे छपरा डाल कर ,या दो ईटों कि भींत सी बनाकर एक कमरे नुमा घर में रहा करते थे.मैं हमेशा सोचती और बडो से पूछती थी कि कैसे ये लोग इतनी सी कुटिया में अपने पुरे परिवार के साथ रह लेते हैं,उनकी आवासीय कठिनाई को सोच कर मन दुखी हो जाता था ,तब पता नही था कि आज से कुछ साल बाद यह समस्या सभी को आने वाली हैं .
कुछ दिन पहले एक विघ्यान मासिक में एक आलेख प्रकाशित हुआ था,सन २०२० में कैसी होगी दुनिया विषय पर,उसमे लिखा था कि २०२० तक हवा में घर बनेंगे ,मैंने सारी कल्पनाये कर ली कि कैसे घर होंगे ,कैसे जायंगे ,आदि आदि .
कल्पना तक ठीक लगा ,पर यथार्थ में यह कितना अजीब होगा ?इसकी कल्पना भी आगयी . सच स्थिति यही हैं,घर कहा बनाये,जमीं ही नही ,समुन्दर तक पर भी घर बना डाले हैं ,यह जानते हुए भी कि यह निसर्ग के कितना विरुध्द हैं ,ऊँची ऊँची - ३०-३०मन्जिला इमारते बन गई हैं ,क्योकि जमीं कहा से लाये ?रहने की जगहों पर बड़े बड़े शौपिंग मॉल बना डाले हैं ,मल्टीस्टोरी काम्प्लेक्स ,होटल बना डाले हैं ,अब या तो मॉल में रहो या ,होटल में,क्योंकि घर तो हैं ही नही,जिनके पास घर हैं उनकी चांदी हैं , और जो मकानमालिक हैं उनके पास तो सोना ही सोना हैं .
किया क्या जा सकता हैं...?????
......तो किया यह जा सकता हैं कि हर शहर का एक तो पुनर्वसन किया जाए,किस शहर में कितने मॉल,होटल,कॉमर्शियल काम्प्लेक्स हो सकते हैं उनकी एक सीमा निर्धारित की जाए,आवासीय जमीं जहाँ लोगो के घर हैं ,उनके कमर्शियल उपयोग के लिए बेचने पर पाबन्दी लगायी जाए, जिसके पास धन हैं और एक से अधिक घर हैं ,वह कितने घर खरीद सकता हैं ?यह तय किया जाए,घर अधिक से अधिक कितना बडा होना चाहिए उनका दायरा निश्चित किया जाना चाहिए,शहर में जहाँ लोग रहते हो वह हिस्सा और जहाँ बाज़ार हो वह हिस्सा अलग अलग होना चाहिए, माकन मालिक कितना किराया वसूल सकते हैं यह भी कही न कही देखा जाना चाहिए .इसके आलवा भी और अधिक विचार कर उपाय खोजे जाने चाहिए .तभी यह समस्या कम हो सकती हैं . - आख़िर हम सब गाते हैं
थोडीसी जमीन , थोडा आसमान
तिनकों का बस एक आशियाँ
माँगा हैं जो तुम से वो ज्यादा तो नहीं है
मेरे घर के आँगन में , छोटा सा झूला हो
सौंधी सौंधी मिट्टी हो , लेपा हुआ चूल्हा हो
Thursday, August 28, 2008
चिंटू के स्कूल की छुट्टी ?नही!!!!!!!!!
चिंटू........ बिना उबला पानी,चिंटू रुको!!!!!!डॉ.साहब आपने ही तो कहा था की ८०%बीमारिया बिना उबले पानी से होती हैं ,फ़िर आप ही चिंटू को,अगर चिंटू को कुछ हो गया तो फ़िर स्कूल की छुट्टी होगी.डॉ.कहते हैं..................चांस ही नही .....
यह एड्वरटाइसमेन्ट जब पहली बार सुना तो पहले तो महिला की ओवर एक्टिंग पर हँसी आई,पर आखिरी वाक्य कि 'चिंटू के स्कूल की छुट्टी हो जायेगी',सुनकर मैं विचारो में खो गई,कि क्या सचमुच आज कि माये इतनी हैं बदल गई हैं कि बच्चे कि बीमारी से ज्यादा उन्हें स्कूल कि छुट्टी कि चिंता होने लगी हैं ?
पिछले कुछ सालो में विद्यालयीन शिक्षण के स्तर में भारी उछाल आया हैं ,साथ उछाल आया हैं डिग्री,डिप्लोमा करने वाले विद्यार्थियों में । आज का युग प्रतियोगिता का युग हैं ,जिसके हाथ में बड़ी बड़ी डिग्री हैं अनुभव हैं ,वो बड़ा नाम ,पैसा कमा रहा हैं, नए कोर्स ,विषय, तकनीक आई हैं .जिनके कारण समाज में शिक्षण के प्रति रुझान तो बड़ा ही हैं,साथ ही बढ़ी हैं प्रतियोगिता की भावना ,हर कोई डॉक्टर , इंजीनियर ,प्रोफेशनल बनना चाहता हैं,चाहता हैं की उसे बड़ी बड़ी कंपनी में नौकरी मिले,कोई बड़ा संवादाता बनना चाहता हैं तो कोई अच्छा सा कोर्स कर विदेशी डिग्री ले बड़ी सी कुर्सी पर बैठना चाहता हैं, किसीको टीवी पर आना हैं .इस सब में बढ़ी हैं प्रतियोगिता की भावना जिसके चलते कही न कही खत्म हो रहा हैं बचपन.
बचपन जो ईश्वर का अनमोल वरदान है ,आज हर माँ- पिता की इच्छा हैं की बेटा पढ़े,बेटी नाम करे ,वैसे यह स्वाभाविक इच्छाए हैं,कौन माँ पिता नही चाहते की बच्चे अच्छे निकले,किंतु आजकल कही न कही ये भी भावना आगयी हैं की मिंटू के 90%तो मेरे चिंटू के 99.99999999% तो आने ही चाहिए.आख़िर एडमिशन का सवाल हैं ,बड़ी आफत हैं बच्चो की, एक तो इतने सारे विषय ,उनसे सम्बंधित सारी किताबो का अध्धयन,स्कूल वर्क ,होम वर्क,और न जाने कितनी ट्यूशन .
जरा कक्षा एक के बच्चे का टाइम टेबल पढिये
मुन्नू नामक यह बालक सुबह ६ बजे उठ कर तैयार होकर ऑटो से स्कूल जाता हैं,1 बजे स्कूल से आकर,खाना खाकर तुंरत 1:30 मिनिट पर विघ्यान की ट्यूशन जाता हैं ,3 बजे वहा से लौट कर गणित की ट्यूशन जाता हैं ,4 बजे सिंगिंग क्लास ,6 बजे आकर बिस्किट खाकर 6:15 पर ड्राइंग क्लास जाता हैं 7 बजे वहा से लौट कर स्कूल करता हैं,9 बजे खाना खता हैं 10-11 होम वर्क करता हैं और सो जाता हैं .
आपको लगता हैं यह बचपन हैं ?इस बच्चे को खेलने -कूदने के लिए तो छोडिये, माँ पापा से बात तक करने की फुर्सत नही हैं ,कुछ माँऐ जो थोडी भावपूर्ण हैं उनके बच्चो को रोज़ 15-20 मिनिट का समय खेलने के लिए देती हैं. क्या हैं यह?? ये कैसा बचपन हैं?टीचर की डांट ,किताबो का बोझ,परीक्षा में माँ पापा ने चाहे,99%लाने का तनाव. यह क्या दे रहे हैं हम अपने बच्चो को?
इस भागम भाग में बच्चा कब बड़ा हो जाता हैं ख़ुद उसे भी पता नही चलता ,आख़िर क्या जरुरत हैं इस सबकी?
यह तथ्यपूर्ण सत्य हैं की हर इन्सान एक सामान गुण नही रखता ,हर व्यक्ति अलग हैं,उसकी इच्छाए अनइच्छाए अलग हैं ,रुचिया, क्षमताये अलग हैं ,हम अगर चिंटू को बिल्कुल मिंटू बनाना चाहे तो वह मिंटू नही तो नही बनेगा पर एक विचित्र मनुष्य जरुर बन जाएगा जो जिन्दगी में सब कुछ होकर कभी सुखी नही हो पायेगा,कयोकी उसके पास वह नही होगा जो वह वाकई चाहता हैं ,और उसने जो पाया हैं उसके लिए जो खोया हैं उसका दुःख जिन्दगी भर उसे सलाता रहेगा .
आज हम रो रहे हैं नौकरिया नही हैं ,बड़ी कठिन लाइफ हैं,पर एक बार सोचे हमने बड़े बड़े कोर्ससो से उपजे घ्यान पर आधारित उपलब्धताओ को ही कैरियर आप्शन माना हैं ,किंतु और भी बाते हैं जो हम कर सकते हैं ,हम कलाओ के बारे में गंभीरता पूर्वक सोच कर इन्हे अपना कैरियर बना सकते हैं,कोई भी काम छोटा बड़ा नही होता ,हम छोटी सी शुरुवात कर कोई वयवसाय कर सकते हैं. हमारा देश कृषि प्रधान है ,कृषि से सम्बंधित विषयों में हम दक्षता ग्रहण कर सकते हैं .
जरुरत हैं गहन विचार कर उसे अमल में लाने की,भेड़चाल चलकर तो हम अपना और अपने बच्चो का भविष्य खराब कर रहे हैं . तो जरा इस बात पर गौर करे,बच्चो बच्चा रहने दे,उनके स्वाभाविक गुण अपने आप जागने दे,उन्हें एक मौका दे उनके हिसाब से जिन्दगी जीने का ,सोचने का,वस्तुओ को देखने का,उन्हें मार्गदर्शन दे,पर जिस रास्ते दुसरे जा रहे हैं उस रास्ते खीचकर न ले जाए,तभी उनका और हमारा ,साथ ही देश का भला हो सकता हैं .
Wednesday, August 27, 2008
मोबाईल,कलाकार और रिंगिंग ध्वनी
फुनवा के दिन बीते रे भैया अब मोबाईल आयो रे ,गीत खुशियन का लायो रे .............ओ SओS ओS ओS ओ................ तो जे हैं आज के जुग की सबसे बड़ी ख़बर, कि गाँव गाँव और शहर शहर मा मोबाईल पहुँच गयो हैं ,पानी नही पहुँच पायो ,स्कूल नही आयो ,पहुंचे गयो हैं मोबाईल,ओ ओ काकी .....ओरी ताई जरा सुनियो .......का कहत हैं जे राधिका ,का बतावत हैं?नई कहानी ...............न हैं कोई राजा न कोई रानी ,कुछ गीतों कि जुबानी ,कड़वी खट्टी बानी ।
तो सुनिए भाईसाहब,और दीदी जी यह हैं मोबाईल और उसकी रिंगिंग टोन कि कहानी........
पिछले कुछ साल से मोबाईल टेक्नोलोजी में क्रन्तिकारी परिवर्तन हुए हैं ,सुधारनाए हुई हैं,कहाँ तो लोग ऐस. टी. डी. के लिए पब्लिक बूथों पर लम्बी लम्बी लाइन लगाते थे और कहा अब घर घर में फ़ोन हो गया हैं,अजी! घर घर की कहानी क्या सुनानी?वही नाना वही नानी ,यहाँ तो हेर जेब में हर पर्स में फोन हैं यानि आज के युग का सर्वाधिक तीव्र गप्पे मारने का साधन हैं मोबाईल। रोज़ नए नए ढंग के मोबाईल बाज़ार में उतारे जा रहे हैं,गाने वाला मोबाईल,सुनने वाला मोबाईल,फोटो वाला मोबाईल,वीडियो वाला मोबाईल,कम पैसे वाला मोबाईल,ज्यादा पैसे वाला मोबाईल,लड़कियों के लिए सुंदर गुलाबी मोबाईल,तो लड़को के लिए ज्यादा तकनिकी गुणवत्ता वाला मोबाईल,हर शहर कि हर गली में एक मोबाईल स्टोर और हर स्टोर में हजारो तरह के मोबाईल ।
क्या हैं न कि भारतीय जनता आवश्यकता से अधिक संगीत प्रेमी हैं ,इसलिए हर मोबाईल में गाने डाउनलोड करने,भेजने,सुनने सुनाने कि उत्तम वयवस्था ,फ्री रिंग टोन और इस सब में गत बजाने वाले कलाकार कि दुर्गत ।
जी हाँ इस मोबाईल ने जहाँ आम जनता को सुख समुद्र में डुबो रखा हैं वही कलाकारों को आंसू निकालने पर भी मजबूर कर दिया हैं । अब मेरी ही बात लीजिये ,२ साल पहले मुंबई में एक काफी बड़े कार्यक्रम में, काफी बड़े हॉल में वीणा वादन की प्रस्तुति दे रही थी , मेरा और सभी श्रोताओ का मन वीणा की सुरील लहरियों में खो चुका था की अचानक किसी का मोबाईल बजा ........... मुन्ना भाई MBBS,मुन्ना भाई .................
एक अन्य कलाकार के साथ तो इससे भी बुरा हुआ ,ख्याल गायन चल रहा था ,बोल थे
"आज आनंद ही आनंद गोकुल में ,आज आनंद ही आनंद" ,श्रोता भी आनंद से विभोर हो रहे थे,एक महिला का मोबाईल बजा .....आ सोचा तो आंसू भर आए मुद्दते हो गई मुस्कुराये ...........
एक संगीत विद्यालय का गुरुपूर्णिमा उत्सव चल रहा था ,गुरु जी गा रही थी ,गुनियन की सुनो गुनियन की मानो ,जो माने गुनियन की सो सब सुख पावे ,एक विद्यार्थी का मोबाईल बजा ............ऐसी की तेसी क्या कर लेगा जमाना .............
एक संगीतकार राग दीपक में गा रहे थे "धरती जले अम्बर जल रहा" ....किसी का मोबाईल बजा ............. "रिमझिम रिमझिम बरसे बदरिया आज मोरे अंगना .."
अजी यह भी सह लिया लेकिन कुछ लोगो के मोबाईल की रिंगिंग टोन तो इतनी अजीब अजीब किस्म की होती हैं की क्या कहिये ,अब सुनिए जब एक रिंगिंग टोन की वजह से मेरा हार्टअटेक होते होते रह गया । हुआ यूँ की मैं बजा रही थी कोमल स्वभाव वाला राग बिहाग,सब सुनने में मगन ,एकदम पिन ड्राप साइलेंस था,बस मेरी वीणा के स्वर गूंज रहे थे,अचानक ऐसी भयंकर आवाज आई मानों सौ-सौ पहाड़ एक साथ गिर गए हो ,भूकंप आ गया हो.मेरा दिमाग हिल गया ,हाथ से शालिग्राम शिला (जिससे मैं वीणा बजाती हूँ)उछली और सीधे पब्लिक के पास जा गिरी,मेरे होश फाख्ता!१ मीनट बाद मैं और श्रोता दोनों को समझ आया की आख़िर हुआ क्या हैं? दरसल एक महाशय का मोबाईल बजा ,रिंगिंग टोन थी - एक दैत्य की हँसी -जी यह उस रिंगिंग टोन का नाम था ,और उसमे बिठायी गई थी,डरावनी,जोरदार,भयंकर हँसी,वो भी पुरी आवाज में .........महाशय को झिड़का ,हॉल से बाहर जाने का निर्देश दिया,दिमाग को शांत किया फ़िर कही जाकर वीणा वादन शुरू हुआ .
तो ऐसी बुरी अवस्था कर डाली हैं इस मोबाईल ने हम कलाकारों की क्या कहियेगा की हमे अब गाने वाले मोबाइलों से डर लगने लगा हैं जी,लोगो को एक पल भी मोबाईल के बिना जी लगता नही और मोबाईल अगर बज जाए तो हमसे कुछ बजता नही ।
Monday, August 25, 2008
अजी सुनते हो ?
अजी सुनते हो?महारानी के कक्ष में से एक तीव्र आवाज आई,घर के महाराज रंककुमार जी हडबडा कर पेपर निचे रख कर उठ बैठे और मिमियानी सी आवाज में कहा............................... "आया छुटकू की अम्मा"!डरते-डरते लडखडाते कदमो से महारानी दुर्भाग्यमती जी के कक्ष में पहुँचे,और ह्रदय पर हाथ रखकर धीमे स्वर में पूछा,क्या हुआ दुर्भागीदेवी? फ़िर एक तीव्र आवाज़ आई, मानो करेले की सारी कड़वाहट स्वर में भर गई हो................"सुबह से पेपर मुंह पर चिपकाए बैठे हो ,दीखता नही,छुटकू कब से रो रहा हैं,मुझे अभी सतरा काम हैं ,तुम तो कुछ करोगे नही,सब जगह मुझे ही मरना हैं ,कल कहा था जरा इलेकट्रीशियन को बुला लाओ,कूलर काम नही कर रहा ,पर तुम्हे अपने पेपर से फुर्सत मिले, तब न ?"रंक महाराज जी घर कि हालत से अच्छे से वाकिफ़ थे मियाँ - बीवी दोनों के नौकरी करने के बाद भी इस महानगरी में घर का खर्च पुरा नही बैठता था,उपर से ये रोज़ रोज़ की झिक झिक !शांत स्वर में बोले..नाराज़ क्यो होती हो मधु, अभी बुला लता हूँ । फ़िर शब्दों कि मार .."अब अभी जाने कि जरुरत नही हैं ,जरा मौका मिला नही बहार जाने का की खुश!घर में सारे काम बाकी हैं ऑफिस भी जाना हैं,छुटकू को संभालो." बेचारे चुप मार के रह गए ।
तीन घंटे बाद .................................................................................................
"दुर्भागी................................... " मेरे मोजे कहाँ हैं ,जूते कहाँ गए ?और मेरा ब्रेकफास्ट तैयार हुआ कि नही?तबसे छुटकू को लिए बैठा हूँ पर एक काम समय से हो तब न ,न जाने सारा समय कहाँ लगा देती हो ,और अब निकले या अभी भी साज श्रृंगार बाकी हैं?सारी फैशन इंडसट्री तो इनकी वजह से ही चल रही हैं,घंटो आईने के सामने खड़े होने के बाद भी मेकप पुरा ही नही होता,ऑफिस जा रहे हैं शादी में नही॥
दुर्भागी को मन ही मन गुस्सा आ रहा था,पर इस समय बोलने का मतलब था मुसीबत मोल ले लेना ,चुप रह गई ।
रात के ९ बजे .................."आते ही घर में टीवी,मैं कुछ कह रही हूँ पर ध्यान सुनने में हैं ही नही ,आज छुटकू कि मेडम कह रही थी कि कल पुरी फीस देनी हैं ,और मकानमालिक का किराया भी देना हैं,वाशिंग मशीन का इंस्टालमेंट देना भी बाकी हैं, इस बार अभी तक मेंटेनेंस भी नही दिया हैं.और ........... । अब रंक महाराज के सब्र का अंत हुआ,अँधेरी अमवास के काले बादल कि तरह या ..........भूकंप की तेज़ ध्वनी कि तरह......... गरजे ......."चुप करो घर में आते ही चिक- चिक-चिक-चिक जरा शान्ति से दो क्षण भी बैठने दोगी या नही?जरा भी टीवी नही देखने देती,आज से मैं टीवी देखूंगा ही नही .माँ ने सोचा था शादी के बाद बेटे को जरा सुख शांति मिलेगी ,पर यहाँ तो दिन रात की चिकचिक । " टीवी बंद................................... महारानी की बडबड शुरू। "हां मैंने भी सोचा था महारानी की तरह रहूंगी माँ बाप ने शादी कर दी और मैं भुगत रही हूँ" आसुंओ का सैलाब ..............और फ़िर शांति,किसी महायुध्द के बाद कि शांति कि तरह ।
६दिन बाद ..............आज दुर्भागी देवी जी की तबियत ठीक नही,बिस्तर पर पड़ी हैं और ये कौन हैं ?जो गरमा-गरम सूप लिए आ रहा हैं । अरे यह तो हमारे रंकमहराज हैं ........."सुनो मधुमालती ये सूप पिलो अच्छा लगेगा और छुटकू को मैं सुला देता हूँ,तुम चिंता मत करो",इस स्नेहिल भेंट से दूरभाग्यमति के अन्दर की मधुमालती जागी, वीणा से मधुर,कोयल की कुहू से मधुर स्वर में बोली... "सुनिए जी ! आप पर उस दिन यूँही नाराज़ हुई,मैं जानती हूँ की तुम नौकरी कि वजह से बहुत परेशान हो,उपर से मेरी झिकझिक, मुझे माफ़ कर दो अब मैं तुम्हे कुछ नही कहूँगी"।
४ दिन बाद............. "अजी सुनते हो,सारा दिन बस दोस्तों से टेलीफोन पर बातें चलती रहती हैं यह नही कि जरा छुट्टी हैं तो बिल जमा कर आयेंगे ",सामने से दूसरी आवाज़............."शुरू हो गई महारानी की चिकचिक जा रहा हूँ, कर रहा हूँ,जरा धीरज रखा करो। "
मंच पर पटाक्षेप ...............
तो भाइयो और बहनों यह था नाटक "शादी"....
और यही हैं शादी कि हकीक़त,पल में प्यार पल में तकरार । जिन्दगी भर यही चलता हैं पर फ़िर भी साथ रहता हैं ,रिश्ता बना रहता हैं , यही हैं शादी .सारे रिश्तो से उपर,अनोखा सुंदर रिश्ता,पति-पत्नी का जैसे हमारे रंक महाराज महारानी का.. .........................................
फोटो -http://cas.bellarmine.edu/ ://wedding.dharmeshpatel.कॉम से साभार
क्या इतना बुरा हूँ मैं माँ?
फ़िल्म तारे जमीं पर बहुत अधिक लोकप्रिय हुई ,न जाने कितने बच्चे-बुढे इस सिनेमा को देखकर रोने लगे,न जाने कितनो को अपना बचपन याद आया,और यह गाना ..............."मैं कभी बतलाता नही ,पर अंधेरे से डरता हूँ मैं माँ ,भीड़ मैं यु न छोडो मुझे,घर लौट के भी आना पाऊ माँ,क्या इतना बुरा हूँ मैं माँ..................
इस गीत बोलो ने सभी के अंतर्मन को छू लिया, एक बेटे की माँ को करुण पुकार ..मानो हर मन की बात इस गीत के शब्दों में कही गई हो ।
संसार में हर एक इन्सान को ईश्वर की और से मिलने वाला सबसे सुंदर रिश्ता होता हैं माँ का .माँ मानो माँ नही होती वह सारी उपमाओ,नामो,संघ्याओ से परे एक ऐसा दिव्य ईश्वरीय तत्व होता हैं जो हर व्यक्ति के लिए अनमोल होता हैं।
बचपन में माँ जब मेरे साथ होती थी तो लगता था जैसे एक सुरक्षा आवरण मेरे चारो और फैला हुआ हैं,एक अलग ही तरह की ज्योतिर्मयी रश्मिया मैं अपने चारो और महसूस करती थी,और महसूस करती थी सुरक्षा ।
मुझे लगता हैं कि हर बच्चे के लिए माँ यही स्थान रखती हैं,उसे माँ के पास होते समय बहुत अच्छा महसूस होता हैं,उस समय वह सारे संसार का राजा होता हैं,और कोई उसका कुछ नही बिघाड सकता ।
समय बहुत बदल गया हैं ,आज स्त्रियों ने भी उच्च शिक्षण प्राप्त कर लिया हैं ,और वे भी ऊँचा कैरियर कर नाम कमा रही हैं ,दिनों दिन महंगाई बढती जा रही हैं और पैसे कि जरूरते भी । इस कारण भी स्त्रियों को मज़बूरी में नौकरिया करनी पड़ रही हैं ।पर वो जो अभी नन्हा बच्चा हैं ,जो अभी ठीक से चलना,भागना भी नही जानता हैं ,जो अभी तक अपने सारे काम तक नही करना जानता हैं वो क्या जाने कि जिन्दगी कितनी कठिन हैं और माँ को कैसे ह्रदय पर पत्थर रखकर काम के लिए निकलना पड़ता हैं,वह सिर्फ़ माँ चाहता हैं ,उसका थोड़ा समय चाहता हैं .हम आप तो ईश्वर में विश्वास रखते हैं ,मुसीबत,दुःख के समय उसके पास दौडे चले जाते हैं ,पर उसे तो यह तक नही पता कि ईश्वर होता क्या हैं। उसके लिए तो उसकी माँ ही ईश्वर हैं ,संसार के सभी लोग,पदार्थ बाद में हैं पहले हैं तो उसकी माँ।
कुछ दिन पहले एक न्यूज़ आई थी कि कैसे एक नौकरानी उसके भरोसे छोड़ ऑफिस गई एक माँ की नन्ही सी फूलकुमारी को बुरी तरह से मारती हैं ,देखकर दिल दहल गया ,सच हैं मानवीय संवेदनाये जहाँ अपनों में खत्म होती जा रही हैं तो वह तो महज नौकरानी हैं, वह किसी के बच्चे की क्यों अपने बच्चे कि तरह परवरीश करेगी.अपवाद हो सकते हैं ।
जिन माताओ का बच्चो को छोड़ जाना अति आवश्यक हैं उनका दुःख मैं समझ सकती हूँ,पर मैंने बहुत सी ऐसी माताओ को भी देखा हैं ,जिन्होंने इन सब के बीच मैं से मध्यम मार्ग निकाला है ,ताकि वे अपने बच्चो को अपना समय और प्यार दे सके।
बच्चो का दुःख,माँ से दूर जाने का त्रास माँ ही समझ सकती हैं ,आख़िर उनके कोमल हृदयों में से यह पुकार निकलना कितना सही हैं कि.. ...........................................................................भीड़ में यु न छोडो मुझे , क्या इतना बुरा हूँ मैं माँ।
बेबी फोटो //www.mummieandme.co.uk/ से साभार
Friday, August 22, 2008
तुम कब आओगे?
आज जब सारा देश जन्माष्टमी की तैयारी कर रहा हैं,भगवान श्रीकृष्ण का जन्म दिवस मनाने के लिए घर,आँगन,मन्दिर,सजा रहा हैं। तब मेरी नज़रे तुम्हे क्यों ढूंढ़ रही हैं?क्यो मेरे ह्रदय में तुम्हारे नामो की 'नामरश्मिया' ज्योतिरमय होकर अंतर्मन को तुम्हारे ही प्रकाश से आलोकित कर रही हैं?क्यो मेरा कंठ अविरत रूप से एक ही नाद का गान कर रहा हैं?मन मस्तिष्क बारम्बार एक ही प्रश्न पूछ रहा हैं कि, तुम कब आओगे?......................................
हे कृष्ण तुम कब आओगे?
वैसे तो तुम्हे सारा संसार भगवान मानता हैं,पर मैंने तुम्हे कभी भगवन माना ही नही,मैंने तुम्हे हमेशा अपना मित्र माना,सखा माना। भगवान मानती तो शायद तुमसे दूर हो जाती,तब
तुम ईश्वर होते और मैं भक्त रह जाती। तुमसे शायद खुलके अपने दुःख - दर्द न कह पाती,इसलिए तुम्हे अपना मित्र माना और बचपन से ही तुमसे अपना हर सुख- दुःख बाटा। पर आज तुमसे जो कहने जा रही हूँ ,वह शायद पूर्ण रूप से कभी नही कहा था ।
हे कृष्ण तुमने संसार को प्रेमयोग सिखलाया,हर किसी को प्रेम के एक सूत्र से बाँध लिया था . पर आज मनुष्यों के ह्रदय का प्रेम स्त्रोत सुख गया हैं,तुमने हर उम्र के व्यक्तियों से आत्मिक प्रेम करना सिखलाया,पर आज मनुष्य सिर्फ़ स्वयं से प्रेम कर रहा हैं।
हे योगेश्वर तुमने कर्मयोग बतलाया,निष्काम कर्म समझाया,पर आज का मनुष्य सिर्फ़ वही कर्म कर रहा हैं,जो स्वयं के लिए फायदेमंद हो ।
तुमने शान्ति और सुव्यवस्था से सुसज्जित द्वारका बसाई,अन्यायी राजाओ को पदच्युत कर,न्यायी राजाओ को राजगद्दी पर बिठाया,आज न्याय कही खो गया हैं मधुसुदन,भष्ट्राचार चहु ओर गाजरघास की तरह फ़ैल गया हैं ।
तुमने कभी कितने ही मनुष्य रूपी दानवो का संहार किया था,आज न जाने कितने दानव आतंकवाद फैलाकर मनुष्य जाती का जीवन,मृत्यु से भी कठिन कर रहे हैं।
हे द्रौपदी कि लाज बचाने वाले हृदयेश्वर,इस कलयुग में न जाने कितनी द्रौपदिया तुम्हे हर क्षण पुकार रही हैं।
तुमने बंसी कि धुन से त्रिलोको में संगीत का साम्राज्य स्थापित किया ,आज वही संगीत मृतप्राय सा हो रहा हैं,उसकी जगह न जाने किस दुर्गीत ने ले ली हैं,जिसमे स्वर नही,शब्द नही ,लय नही ओर मधुरता भी नही ।
तुमने कभी लक्ष्यविहीन,कर्म -अकर्म,जीवन- मरण के चक्रव्यूह में उलझे हुए अर्जुन को गीता बतलाई थी,आज सारा समाज लक्ष्यविहीन हो रहा हैं,सारा समाज अतृप्त हैं,हर कोई अर्जुन हैं यहाँ। इसलिए अधर्म-धर्म के चक्कर में उलझ कर शांति की खोज में न जाने कितने ढोंगी बाबाओ की शरण में जा रहा हैं ।
हे कृष्ण!तुमने कभी यहाँ समस्त नर- नारियो को जीवन दिया था,प्रेम दिया था ,कभी यहाँ की धरती को वृन्दावन किया था। हे करुणाकर! आज इस वसुधा को ,इस बंजर धरा को पुनः पित वस्त्र की आवश्यकता हैं ,यहाँ से वन खो गए हैं ,जल स्त्रोत सुख गए हैं ,तुम्हारे नीलवर्ण सम जल की यहाँ अत्यन्त आवश्यकता हैं।
इसलिए मेरे कृष्ण, मन बार बार पूछ रहा हैं ,तुम कब आओगे ? वैसे तो तुम हर जन्माष्टमी को हर मन्दिर में ,हर घर में आते हो ,पर आकर भी,शायद आते ही नही हो। इस बार एक ही प्रार्थना हैं तुमसे, भारत रूपी गोकुल के किसी न किसी घर में जरुर आओ,एक बार पुनः,कृष्ण,कान्हा बनकर इस भूदेवी के जनों को प्रेम का पाठ सिखलाओ,जीवन का मंत्र कंठस्थ कराओ,क्योकि तुम अब भी नही आए तो यह संसार प्रल्यंकित होकर,समाप्त हो जाएगा।
इसलिए हे मुरारी इस बार आओ,क्योकि तुम्हारी इस राधिका का मन सतत पूछ रहा हैं,तुम कब आओगे ?मोहन तुम कब आओगे ?
हे कृष्ण तुम कब आओगे?
वैसे तो तुम्हे सारा संसार भगवान मानता हैं,पर मैंने तुम्हे कभी भगवन माना ही नही,मैंने तुम्हे हमेशा अपना मित्र माना,सखा माना। भगवान मानती तो शायद तुमसे दूर हो जाती,तब
तुम ईश्वर होते और मैं भक्त रह जाती। तुमसे शायद खुलके अपने दुःख - दर्द न कह पाती,इसलिए तुम्हे अपना मित्र माना और बचपन से ही तुमसे अपना हर सुख- दुःख बाटा। पर आज तुमसे जो कहने जा रही हूँ ,वह शायद पूर्ण रूप से कभी नही कहा था ।
हे कृष्ण तुमने संसार को प्रेमयोग सिखलाया,हर किसी को प्रेम के एक सूत्र से बाँध लिया था . पर आज मनुष्यों के ह्रदय का प्रेम स्त्रोत सुख गया हैं,तुमने हर उम्र के व्यक्तियों से आत्मिक प्रेम करना सिखलाया,पर आज मनुष्य सिर्फ़ स्वयं से प्रेम कर रहा हैं।
हे योगेश्वर तुमने कर्मयोग बतलाया,निष्काम कर्म समझाया,पर आज का मनुष्य सिर्फ़ वही कर्म कर रहा हैं,जो स्वयं के लिए फायदेमंद हो ।
तुमने शान्ति और सुव्यवस्था से सुसज्जित द्वारका बसाई,अन्यायी राजाओ को पदच्युत कर,न्यायी राजाओ को राजगद्दी पर बिठाया,आज न्याय कही खो गया हैं मधुसुदन,भष्ट्राचार चहु ओर गाजरघास की तरह फ़ैल गया हैं ।
तुमने कभी कितने ही मनुष्य रूपी दानवो का संहार किया था,आज न जाने कितने दानव आतंकवाद फैलाकर मनुष्य जाती का जीवन,मृत्यु से भी कठिन कर रहे हैं।
हे द्रौपदी कि लाज बचाने वाले हृदयेश्वर,इस कलयुग में न जाने कितनी द्रौपदिया तुम्हे हर क्षण पुकार रही हैं।
तुमने बंसी कि धुन से त्रिलोको में संगीत का साम्राज्य स्थापित किया ,आज वही संगीत मृतप्राय सा हो रहा हैं,उसकी जगह न जाने किस दुर्गीत ने ले ली हैं,जिसमे स्वर नही,शब्द नही ,लय नही ओर मधुरता भी नही ।
तुमने कभी लक्ष्यविहीन,कर्म -अकर्म,जीवन- मरण के चक्रव्यूह में उलझे हुए अर्जुन को गीता बतलाई थी,आज सारा समाज लक्ष्यविहीन हो रहा हैं,सारा समाज अतृप्त हैं,हर कोई अर्जुन हैं यहाँ। इसलिए अधर्म-धर्म के चक्कर में उलझ कर शांति की खोज में न जाने कितने ढोंगी बाबाओ की शरण में जा रहा हैं ।
हे कृष्ण!तुमने कभी यहाँ समस्त नर- नारियो को जीवन दिया था,प्रेम दिया था ,कभी यहाँ की धरती को वृन्दावन किया था। हे करुणाकर! आज इस वसुधा को ,इस बंजर धरा को पुनः पित वस्त्र की आवश्यकता हैं ,यहाँ से वन खो गए हैं ,जल स्त्रोत सुख गए हैं ,तुम्हारे नीलवर्ण सम जल की यहाँ अत्यन्त आवश्यकता हैं।
इसलिए मेरे कृष्ण, मन बार बार पूछ रहा हैं ,तुम कब आओगे ? वैसे तो तुम हर जन्माष्टमी को हर मन्दिर में ,हर घर में आते हो ,पर आकर भी,शायद आते ही नही हो। इस बार एक ही प्रार्थना हैं तुमसे, भारत रूपी गोकुल के किसी न किसी घर में जरुर आओ,एक बार पुनः,कृष्ण,कान्हा बनकर इस भूदेवी के जनों को प्रेम का पाठ सिखलाओ,जीवन का मंत्र कंठस्थ कराओ,क्योकि तुम अब भी नही आए तो यह संसार प्रल्यंकित होकर,समाप्त हो जाएगा।
इसलिए हे मुरारी इस बार आओ,क्योकि तुम्हारी इस राधिका का मन सतत पूछ रहा हैं,तुम कब आओगे ?मोहन तुम कब आओगे ?
Thursday, August 21, 2008
कहाँ खो गई जिन्दगी?
मुंबई का बोरीवली स्टेशन,सुबह के पॉँच बजे का वक़्त, भीड़ की बढती आवाजो के साथलोकल की धडधडाती आवाज,लोकल रुकी,भीड़ का रेला,वायु से भी अधिक तीव्र गति के साथट्रेन में चढा और लोकल चल पड़ी। मैं इस सब के लिए बिल्कुल नई थी,भीड़ में धक्के खातीहुई ,ट्रेन की तरफ बढ़ने की जगह; २५ कदम पीछे पहुँच गई,मेरे साथ और कई लोग थे जो ट्रेन में चढ़ नही सके थे । अचानक हल्ला हुआ ,शायद कोई गाड़ी में चढ़ने की कोशिश करतेसमय,गाड़ी के नीचे गिर गया था । कुछ मानवीय अंत:करण वाले मानवो ने उसे बाहरनिकालने की कोशिश की,पर;तब तक देर हो चुकी थी .इस वाकये ने मुझे झिंझोड़ कर रखदिया,उस दिन मन किसी काम में नही लगा ,फ़िर धीरे-धीरे इस सब की आदत होनेलगी,रोज़ सुबह की धक्कम- धुक्की के बाद गाड़ी पकड़ना,इस बीच कुछ इंसाननुमा प्राणियोको गिरते-पड़ते देखना ,और बाकियों का इसे नज़रंदाज़ कर देना। मैं देखती, यह सब प्राणीसुबह ५-६ बजे अपने- अपने होटल रूपी घरो से निकल जाते,दिन भर दौड़ भाग करते,कभीऑफिस के लिए,कभी काम के लिए,कभी चार पैसो के लिए,कभी जीने के लिए । रात के९-१०-११-१२ बजे कभी शायद अपने उन्ही घरो को पहुँचते , जहा इनका कुछ क्षणों का बसेराहुआ करता।
फ़िर मैं दुसरे शहरो में गई, देखा; वहां लोग रोज़ ही अप- डाउन कर रहे हैं,और नही भी करेतो भी सुबह के निकले,रात तक ही घर पहुँच रहे हैं,किसी को,किसी के लिए फुर्सत नहीहैं....पत्नी को पती के लिए,भाई को बहन के लिए,सास को ससुर के लिए,बच्चो को माँ -बाप केलिए। सब अपने अपने कामो में व्यस्त हैं . कोई दुखी हैं,परेशान हैं,पर कोई नही जो उसकेदुःख को सुने,चार अच्छी बातें करे,अरबो-खरबों की इस भीड़ में इन्सान रूपी प्राणी बिल्कुलअकेला हैं।
एक समय था जब इस धरती पर इन्सान रहा करता था,वह अपनों से मिलता,उनके सुख दुःख बाटता,उनकी खुशियों में झूमता,गमो में रोता,वह निसर्ग से बाते करता,उसके पास खुदके लिए थोड़ा वक़्त होता,जब वह ख़ुद से बाते करता,अपने शौक पुरे करता,वह गुनगुनाता,गाता,नाचता,चित्रकारी करता,कभी कोई कविता रचता,अपनों के साथ बैठकर खाना खाता। कभी वह इन्सान इस धरती पर रहता था। हम समय से होड़ करते हुए न जाने कितना आगे बढ़ गए,सुख सुविधा के कितने ही उपकरण हमने बना लिए,पर वक़्त की इस दौड़ में;हमारे अन्दर का मानव कही पीछे ही छुट गया,मशीनों के इस युग में हम सिर्फ़ एक मशीन बनकर रहे गए,जो सारे काम करती हैं,पर उन कामो का आनंद नही ले पाती,वह पकाती हैं पर उसे खाने का आनंद लेना नहीआता,उसके पास रिश्ते हैं पर उन्हें निभाने का वक़्त नही, क्यों हुआ ऐसा ?
कही न कही हम सब(सम्पूर्ण मानवजाती ) इसके लिए जिम्मेदार हैं, प्रतियोगिता के इस युग में हमने अपने आपको ही सर्वाधिक छला,कष्ट दिया हैं । प्रतियोगिता में बने रहना और जीतने की जिद्द बुरी नही हैं,यह नही हो तो इन्सान लक्ष्य विहीन पथिक मात्र हैं,परन्तु इस जिद्द के चलते,अपने अंतर्मन की हत्या कर देना ,कहाँ तक उचित हैं ?कहाँ तक सही हैं अपनी संवेदनाओ को मार देना? आज का जीवन बहुत कठिन हैं,जीने के लिए सौ बहाने चाहिए,और उससे भी अधिक धन. पर थोड़े धन में,थोड़े सुखो में,इन्सान सुखी रहना सिख लेता तो,हमारे अन्दर का मानव मन तो जिन्दा रहता,कुछ ऐसे भी इन्सान हैं,जो इस सब में से थोड़ा समय स्वयं के लिए,अपनों के लिए चुरा लेते हैं,कभी बैठ कर कुछ लिखते हैं,कभी दूसरो से कुछ सुनते हैं,कुछ चित्रकार आज भी निसर्ग से रंग चुरा लेते हैं,पर ऐसे प्राणी जो वास्तविक अर्थो में इन्सान कहलाये ,कम ही बचे हैं। कही न कही हम सबके मन में इच्छा हैं ,जीने की ,अपनों के साथ कुछ पल गुजारने की,हम सब जानते हैं की जिन्दगी खो गई हैं,और उसे हमे लौटा लाना हैं,इससे पहले की आने वाली पीढिया पुरी तरह मशीनीकृत हो जाए,मानव के वेश में रोबोट हो जाए ।
फोटो :http://static.flickr.कॉम,www.abc.नेट से साभार
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