Thursday, August 21, 2008

कहाँ खो गई जिन्दगी?


मुंबई का बोरीवली स्टेशन,सुबह के पॉँच बजे का वक़्त, भीड़ की बढती आवाजो के साथलोकल की धडधडाती आवाज,लोकल रुकी,भीड़ का रेला,वायु से भी अधिक तीव्र गति के साथट्रेन में चढा और लोकल चल पड़ीमैं इस सब के लिए बिल्कुल नई थी,भीड़ में धक्के खातीहुई ,ट्रेन की तरफ बढ़ने की जगह; २५ कदम पीछे पहुँच गई,मेरे साथ और कई लोग थे जो ट्रेन में चढ़ नही सके थेअचानक हल्ला हुआ ,शायद कोई गाड़ी में चढ़ने की कोशिश करतेसमय,गाड़ी के नीचे गिर गया थाकुछ मानवीय अंत:करण वाले मानवो ने उसे बाहरनिकालने की कोशिश की,पर;तब तक देर हो चुकी थी .इस वाकये ने मुझे झिंझोड़ कर रखदिया,उस दिन मन किसी काम में नही लगा ,फ़िर धीरे-धीरे इस सब की आदत होनेलगी,रोज़ सुबह की धक्कम- धुक्की के बाद गाड़ी पकड़ना,इस बीच कुछ इंसाननुमा प्राणियोको गिरते-पड़ते देखना ,और बाकियों का इसे नज़रंदाज़ कर देनामैं देखती, यह सब प्राणीसुबह - बजे अपने- अपने होटल रूपी घरो से निकल जाते,दिन भर दौड़ भाग करते,कभीऑफिस के लिए,कभी काम के लिए,कभी चार पैसो के लिए,कभी जीने के लिएरात के-१०-११-१२ बजे कभी शायद अपने उन्ही घरो को पहुँचते , जहा इनका कुछ क्षणों का बसेराहुआ करता

फ़िर मैं दुसरे शहरो में गई, देखा; वहां लोग रोज़ ही अप- डाउन कर रहे हैं,और नही भी करेतो भी सुबह के निकले,रात तक ही घर पहुँच रहे हैं,किसी को,किसी के लिए फुर्सत नहीहैं....पत्नी को पती के लिए,भाई को बहन के लिए,सास को ससुर के लिए,बच्चो को माँ -बाप केलिएसब अपने अपने कामो में व्यस्त हैं . कोई दुखी हैं,परेशान हैं,पर कोई नही जो उसकेदुःख को सुने,चार अच्छी बातें करे,अरबो-खरबों की इस भीड़ में इन्सान रूपी प्राणी बिल्कुलअकेला हैं

एक समय था जब इस धरती पर इन्सान रहा करता था,वह अपनों से मिलता,उनके सुख दुःख बाटता,उनकी खुशियों में झूमता,गमो में रोता,वह निसर्ग से बाते करता,उसके पास खुदके लिए थोड़ा वक़्त होता,जब वह ख़ुद से बाते करता,अपने शौक पुरे करता,वह गुनगुनाता,गाता,नाचता,चित्रकारी करता,कभी कोई कविता रचता,अपनों के साथ बैठकर खाना खाताकभी वह इन्सान इस धरती पर रहता था हम समय से होड़ करते हुए जाने कितना आगे बढ़ गए,सुख सुविधा के कितने ही उपकरण हमने बना लिए,पर वक़्त की इस दौड़ में;हमारे अन्दर का मानव कही पीछे ही छुट गया,मशीनों के इस युग में हम सिर्फ़ एक मशीन बनकर रहे गए,जो सारे काम करती हैं,पर उन कामो का आनंद नही ले पाती,वह पकाती हैं पर उसे खाने का आनंद लेना नहीआता,उसके पास रिश्ते हैं पर उन्हें निभाने का वक़्त नही, क्यों हुआ ऐसा ?

कही कही हम सब(सम्पूर्ण मानवजाती ) इसके लिए जिम्मेदार हैं, प्रतियोगिता के इस युग में हमने अपने आपको ही सर्वाधिक छला,कष्ट दिया हैंप्रतियोगिता में बने रहना और जीतने की जिद्द बुरी नही हैं,यह नही हो तो इन्सान लक्ष्य विहीन पथिक मात्र हैं,परन्तु इस जिद्द के चलते,अपने अंतर्मन की हत्या कर देना ,कहाँ तक उचित हैं ?कहाँ तक सही हैं अपनी संवेदनाओ को मार देना? आज का जीवन बहुत कठिन हैं,जीने के लिए सौ बहाने चाहिए,और उससे भी अधिक धन. पर थोड़े धन में,थोड़े सुखो में,इन्सान सुखी रहना सिख लेता तो,हमारे अन्दर का मानव मन तो जिन्दा रहता,कुछ ऐसे भी इन्सान हैं,जो इस सब में से थोड़ा समय स्वयं के लिए,अपनों के लिए चुरा लेते हैं,कभी बैठ कर कुछ लिखते हैं,कभी दूसरो से कुछ सुनते हैं,कुछ चित्रकार आज भी निसर्ग से रंग चुरा लेते हैं,पर ऐसे प्राणी जो वास्तविक अर्थो में इन्सान कहलाये ,कम ही बचे हैं कही कही हम सबके मन में इच्छा हैं ,जीने की ,अपनों के साथ कुछ पल गुजारने की,हम सब जानते हैं की जिन्दगी खो गई हैं,और उसे हमे लौटा लाना हैं,इससे पहले की आने वाली पीढिया पुरी तरह मशीनीकृत हो जाए,मानव के वेश में रोबोट हो जाए





फोटो :http://static.flickr.कॉम,www.abc.नेट से साभार

12 comments:

Shambhu Choudhary said...

एक समय था जब इस धरती पर इन्सान रहा करता था,वह अपनों से मिलता,उनके सुखदुःख बाटता,उनकी खुशियों में झूमता,गमो में रोता,वह निसर्ग से बाते करता,उसके पासखुदके लिए थोड़ा वक़्त होता,जब वह ख़ुद से बाते करता,अपने शौक पुरे करता,वहगुनगुनाता,गाता,नाचता,चित्रकारी करता,कभी कोई कविता रचता,अपनों के साथ बैठकरखाना खाता। कभी वह इन्सान इस धरती पर रहता था। हम समय से होड़ करते हुए न जाने कितना आगे बढ़ गए,सुख सुविधा के कितने हीउपकरण हमने बना लिए,पर वक़्त की इस दौड़ में;हमारे अन्दर का मानव कही पीछे ही छुटगया,मशीनों के इस युग में हम सिर्फ़ एक मशीन बनकर रहे गए,जो सारे काम करती हैं,परउन कामो का आनंद नही ले पाती,वह पकाती हैं पर उसे खाने का आनंद लेना नहीआता,उसके पास रिश्ते हैं पर उन्हें निभाने का वक़्त नही, क्यों हुआ ऐसा ?

राधिका जी, नमस्कार!
आपके ब्लॉग पर आज भ्रमण करने का अवसर मिला। आपके लेख मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण है। अच्छा लिखती हैं। ऊपर बोल्ड को ध्यान देंगी, तो और निखार आ जयेगा। शुभकामनाओं के साथ- शम्भु चौधरी

jitendra said...

aaj jindigi mai sabhi ko ek taharav ke jarurat hai.jindigi ke is race me kuch pal ruk ker aaram karne se ek nai josh or urja ka sanchar hota hi per waqth kiske pas hai. aacha likha aapne. ek purvai ka eahaas.

Radhika Budhkar said...

जीतेन्द्र जी धन्यवाद पढने व टिप्पणी करने के लिए,इ हिन्दी साहित्य सभा की मैं आभारी हु,की उन्होंने पढ़ा और मुझे सुधार सुझाये ,आपकी टिप्पणी के अनुसार मैंने सुधार कर दिए हैं,धन्यवाद .

Radhika Budhkar said...

Shmbhu chaudhri ji ko dhanywad

vipinkizindagi said...

अच्छा हैं..

वर्षा said...

इस भागमभाग में ज़िंदगी पीछे छूट जाती है। अच्छा लिखा आपने।

संगीता पुरी said...

सचमुच खो गयी है जिंदगी।

कुश said...

जिंदगी अब सिर्फ़ नौ से पाँच हो गयी है..
आपकी लिखावट ग़ज़ब है.. कितने ही दृश्य दिखा दिए

Rajesh Roshan said...

दफ्तर और पैसे के चक्कर में कई खुशियां तो यू ही खो गई.....

Udan Tashtari said...

खो गयी है जिंदगी...बेहतरीन..आभार.

Demo Blog said...

सत्यम , सुन्दरम

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

मायानगरी की माया है सारी !!